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…काश छोटे ही रहते…काश यहीं कुछ कर लेते…काश गांव में ही बस जाते! छठ खत्म होते ही नम आंखों के साथ लौट चले परदेश

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सुबह के 8 बज रहे थे, मेरे बॉस का फोन आया। मुझे मानो सांप सूंघ गया हो..मैं समझ गया था कि बुलावा आ गया है। 2 घंटा पहले ही छठ घाट से सुबह का अरघ देकर लौटा था। मैने फोन उठाया गुड मॉर्निंग कहा तो उधर से जवाब आया हां भई अब तो छठ खत्म कल वापस आ जाना। मैने हां कहा तो फोन कट गया..3 दिन पहले नहाय खाय के दिन घर आया ही था।

पूजा में व्यस्तता के कारण ना तो परिवार के लोगों से ठीक से बातचीत कर पाया था ना दोस्तो से मिल पाया था। मैं सोचने लगा कि समय कितना जल्दी बीत गया पता ही नही चला। छठ पूजा के उत्साह में यह भूल बैठा था कि हमारे घर से हजारों किलोमीटर दूर कोई बैठा है जो उंगली पर हमको नचाता रहता है। पहले जब कोलकाता में रहता था तो हमारे बहुत सारे परिचित सैकड़ों किलोमीटर दूर लोकल ट्रेन से ऑफिस आते थे और शाम को फिर घर लौट भी जाते थे।  पहले लगता था ये लोग बहुत कंजूस हैं। यहां भी रूम लेकर रह सकते थे।

लेकिन अब लग रहा है वो सही थे, अब लग रहा कि वो कम से कम अपने परिवार से मिल पाते थे। काश हमारे यहां भी ऐसी व्यवस्था होती। हमलोग रोज लोकल ट्रेन से पटना जाते वहां किसी ऑफिस, किसी फैक्ट्री में 10–15 हजार का जॉब करते और शाम को फिर वापस अपने घर आते और परिवार के लोगों के साथ सुकून से खाना खाते। होली, दीपावली,रछठ सभी त्यौहार पूरे धूमधाम से मनाते। लेकिन ये ख्वाब मात्र ही था यहां राज्यरानी या इंटरसिटी पटना के लिए निकलती है तो कभी सिमरिया पुल से पहले घंटो रोक देती है तो कभी फतुआ के बाद और एम्प्लॉयमेंट की बात तो छोड़ ही दीजिए।

एम्प्लॉयमेंट के नाम पर ट्रेन में भर कर बाहर जाने के अलावा कुछ नही है हमारे पास। खैर ख्वाब से उठकर बैग पैक कर लिया मम्मी ठेकुआ, पिरिकिया वैगरह प्रसाद दे दी। शाम को गाय के दूध का पेड़ा भी बना दी थी। आज सुबह नाश्ता बना दी बोली रास्ते में खा लेना। अभी वापस काम पर जा रहा हूं।पब्लिक बस में “परदेशी परदेशी जाना नही मुझे छोड़ कर” बज रहा है। बस में कोई कह रहा है राजधानी आजकल टाइम पर है। आंखे नम है और मन के अंदर कई सवाल..काश छोटे ही रहते..काश यहीं कुछ कर लेते..काश गांव में ही बस जाते

गुलशन कुमार की कलम से... 🖋️

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